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श्री शांतिनाथनो रास खंग त्रीजो.
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॥ ढाल सत्त्यावीशमी ॥
|| देशी ऊकडीनी ॥ सुए योगींदा वे, वात कहुं अब मेरी ॥ धनके कारण वे बहुत देर में फेरी ॥ ० ॥ फेरी दीधी देश विदेशें, बहुत दिव स दूया मोकुं ॥ नूख्या तरप्या धन मेलाकुं, बहुत क्या में कहुं तोकुं ॥ पण उपगारी को न मलिया, जासुं टले ए दुःखदंदा || थाका व्याया देखी तरुठाया, सुख पाया सुप योगींदा || सुण योगींदा वे ॥ १ ॥ धन मन मानुं वे, और कहा जगमांये ॥ धनसं इकत वे, जिहां जावे वहां पावे ॥ त्रूणा पाइ इकत दोलत दुनियां, धन विष्णु काज न कोइसरे ॥ निर्धन र मृत दोच बरोबर, कवि ग्रंथांतर युं उन्चरे ॥ परणी धरणी ते पण ढंगे, फरे कुलीन पण श्रयमान्युं ॥ न गए कोइ प्रतीति ते नरनी, ते माटें धन मन मान्युं ॥ ६० ॥ २ ॥ व तुं पाया थे, जाग्यदशा मुक्त जागी ॥ कर सुपसाया वे हो मुऊ उपर रागी ॥ ० ॥ रागी होइ करो मुऊ करुणा, करणी तुमची प्रति सारी ॥ अवधूत कहावो व्यलक जगावो, दुनिया में तुम गति न्यारी ॥ चालसुन्या घर घ्यावी गंगा, रंग नया मोरे मन नाया || दरि ःख नेहा जोय नमेहा, ताप टले व तुं पाया ॥॥ ३ ॥ कहे ते रखी कुणकुण देश तें देखे || कहो मुऊ न्यागे थे, वात विचार गुं लेखे ॥ ० ॥ लेखे बात विचारी पंथी, कहे चोराशी फरि व्यायो ॥ कुण कुछ तेह बताव ते मोकुं, जांखे कनट मन पायो || सेनी देखे देश है, उनकी रीति मिले सरखी ॥ तामें जाणुं तरत पिठाणुं, साची ते कह ते रखी || क० || ४ || सोरठ देख्यो वे, चतुर जिहां नर नारी ॥ मधुरं घोले थे, भानुं सुर अवतारी ॥ ० ॥ सुरप्रवतारी जिहां दो तीरण, शत्रु जय गढ़ गिरनारी ॥ यादीश्वर म्यलवेसर स्याप्या, जाउं उनकी बनिहारी ॥ कोडा कोडि व्यनंता सिद्धा, जिहां मुनिवर सो में पंख्या || बहु दिन वहां फरिया बहु नीलरीया, योगीश्वर सोरठ देख्या ॥ सो॥ ५ ॥ कुंकण देख्या मैं जिहां पग पग पनवाडी || नालीयेर कदली थे, जोजन सुंदर गाजी ॥ ॐ ॥ वाली नोजन चतुरविचकूण, लोक सहको नदियां ॥ गयो गुजरान कर दे, तोनी में न जय तुखयो || काम समोर ॥ कटुंतागुण तुं मिना, ऐसों में कुंणों ॥ ॥ ॥ बहुतेरे ते कनिंग ॥ वाट
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चदुत
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