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१३४ . जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो. कार के ॥ राम् ॥ ११ ॥ जनक समीपें श्राव्यो कर जोडी, विनयें नामे शीश ॥ सदु आशिष दीये चिरं जीवो, कुंवर कोटि वरीस के ॥ रा॥ १२ ॥ चिंतवे नरवर राजधुरंधर, पुत्र सुकुल मुह आगे ॥ न घटे मुजने राज्यमा रहेवू, अाव्यु मन वैराग्य के ॥ रा॥ १३ ॥ यमुक्तं ॥ नारं खमे वि पुत्ते, जो नियनारं विजु निश्चंतो ॥ न य साहेइ सकङ, सो मुरकसिरो मणि जणि ॥ १ ॥ पूर्वढाल ॥ लहि सम्मति सुत राज्ये थापी, नृप जयंधर मुनि पासेंलोच करी मन शोप हरीने, चारित्र पाले नन्नासें के ॥ रा० ॥ ॥१४॥चंपकवरणी काया हो कोमल, कीधो उग्र विहार ।। पंच समितित्रण गुप्ति संजाले, पाले पंचाचार के ॥ रा ॥ १५ ॥ हवे नरसिंह नरेसर रूडे, पाले प्रजाने प्रेमें ॥ न्यायमार्ग नवि चूके कोर, सदुको व्रतें देम के ।। राण ॥ १६ ॥ अन्य दिवस अतिमायी प्रकट्यो, पाकरो चोर प्रचंम् ॥ नगर मुष्यु सघलृ तिण धूर्ते, कोई न देई शके दंम के ॥ रा ॥ १७ ॥ महाजन लोक मलीने आवे, राजन किम रहेवाये ॥ धोले दहाडे धूते हो धूरत, रातें वाहार न जाय केरा॥१७॥ दे दिलासो महाजन वास्यो, आरक्क रखवालें ॥ पुनरपि महाजन फरियाद कीधी, कां नृप अम नवि पाले के ॥ राम् ॥ १ए ॥ नहिंतर स्थानक आपो अलगं, तिहां जानें अमें वसीयें ॥ तिहां पारदक कामो कीधो, बोलाव्यो रायें रसीये के ॥ रा० ॥ २० ॥ कहे महाजन राजन इहां एहनो, वांक न कांई दीसे ॥ वर्धर वेटी जाय उकेटी, धूरत रात न दीसे के ॥ रा०॥ २१ ॥ ए कोश वलीयो ने वली बलियो, को प्रपंचें जीताये ॥ कहे राजा करिश ढुं रूड़, महाजन कीg विदाय ॥रा॥२॥ कहे सुव्रत श्रीदत्ता सुण हवे,यस्थि म जानी वात॥त्रीजे खंमें ढाल बबीशमी, सांजलो मूकी वात के ॥२३॥७६२॥
॥दोहा॥ ॥ वंठ वेप धरि नीलस्यो, रातें ते राजान ॥ सघले शंका स्थानकें, भ्रम ण करे धरि शान ॥ १ रात्रिमांहे वाहिर दिने, फरे अहोनिश ते नूप ॥ पण किहांये दीतुं नहिं, तस्करतणुं स्वरूप ॥ २ ॥ अन्य दिवस संध्या समय, वेतो तरुतलें राय ॥ वस्त्र कपाय त्रिदमियो, दीठो मारगमांय ॥ ३ ॥ निज समीप आव्यो यदा, नम्यो नरेश्वर ताम ॥ कुण तुं किहांथी धावीयो, तिणे पण पूज्यु बाम ॥ ४ ॥
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