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जैनकथा रत्नकोष नाग आठमो.
७ ॥ तो थाशे प्राणने कुशल, मानो कयुं माहरूं ॥ मु० ॥ नहिंतर एलें खजें, बेदिश डुं शिर थाहरुं ॥ मु० ॥ जयजीत कहे परमाण, कयुं एम ता हरुं ॥ मु० ॥ कहे मत वीहो तुमें अंश, हुं बुं तुम वाहरु ॥ मु० ॥ ८ ॥ सुख विलसंतां ते सायें, गया वहु वासरा ॥ मु० ॥ एक दिन यावी कहे ते, रहेजो तुमें पांशरा ॥ मु० ॥ ढुं सुस्थितने यादेशें, शोधवा सायरा ॥ मु० || जानं बुं कारण माटें, म याशो कायरा ॥ मु० ॥ ए ॥ खाजो फल फूल तुमें, रमजो पूरव वनें ॥ मु० ॥ न साथ तो उत्तर पश्चिम, जा जो कामनें ॥ मु० ॥ वारुं बुं दक्षिण वन, रखे धरता मनें ॥ मु० ॥ तिहां के दृष्टिविप नाग, देशे दुःख तुमनें ॥ मु० ॥ १० ॥ गइ देवी कुमर वे, त्रिदु वनमा रमे ॥ मु० ॥ फल फूल घणां नली जाते, तिहां पण नवि गमे ॥ ० ॥ चिंते मनमांहे न जाये, वासर ए किमे ॥ मु० ॥ सांजरे मनमां निज गए, हेरान थया में ॥ मु० ॥ ११ ॥ वली वली निरखियें दक्षिण, वारिधि नेहगुं || || चिंते जइ चलो नाइ, तिहां दिल उल्लस्युं ॥ सु० ॥ हमयां दोडीनें तमासो, जोई यावचं ॥ मु० ॥ चिंता एटलशे दूर, अमल चेन पासचं ॥ मु० ॥ १२ ॥ गया ते दिशें जाम, खत्र गंध उबली ॥ मु० ॥ वस्त्रे आबादी नाक, जोइ खाघा वली ॥ मु० ॥ देखी नर त्यां एक रंक, थया मन व्याकुली ॥ मु०॥ एहवे शूलागत मनुज, दीगे गया ऊलफली ॥ मु० ॥ १३ ॥ पूब्युं तेहनें जइ कुण, कमाइ शी करी ॥ मु० ॥ ते बोल्यो सांजलो मित्र, दशा महारी फरी ॥ मु० ॥ मुऊ वाहण नांग्युं कर्म, ए लाग्युं नीसरी ॥ मु० ॥ रत्ना अनुरागें कांइक, सेवा वीसरी ॥ मु० ॥ १४ ॥ मुक्त डःख एगें दीधुं; माहारुं कीधुं में लधुं ॥ मु० ॥ तेणें नर विपसाड्या कष्टें, पाढ्या हुं गुं कहुं ॥ मु० ॥ कहो वात तुम्हारी मुकनें, सारी सद्दढुं ॥ मु० ॥ धुरिती जांखी कांइ न, रा खी ए सहु ॥ मु० ॥ १५ ॥ करी करुणा कांहि उपाय, कहो जीव्या तणो ॥ मु० ॥ कहे ते नर शैलक यह, इहां सोहामणो ॥ मु० ॥ करें यश्वनुं रूप ए पर्व, दिने वोले घणो ॥ मु० ॥ कहो कुपने राखुं कुराने, पालुं ते जणो ॥ मु० ॥ १६ ॥ तमें जार्ज तेहनी पास, करो सेवा नली ॥ मु० ॥ ते द्याव्या यह समीप, सहु आशा फली ॥ मु० ॥ उगणीग़मी ढाल कही, त्री जे खंमें रली ॥ मु०॥ जे विपयथकी रह्या दूर, तेहनी सुदशा वली १७
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