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दुई चलचित्त ॥ सु० ॥ १८ ॥ शुं मुऊ पुत्री दीसे मारिका रे, तस कंक ए सहि. एह ॥ देहचिंतामिपें करीने यावियो रे, नृप पुत्रीनें गेह ॥ सु० ॥ १ ॥ सूती दीठी विण कंकण वालिका रे, हा हा प्रगटट्यूँ पाप ॥ तिम वृस्थानक पाटो देखीनें रे, उपन्यो मन संताप || सु० ॥ २० ॥ हा हा कुल निर्मल मेनुं कियुं रे, इ पापिणीयें याज || लोक सहु मा स्वां हत्यारीयें रे, खोवरावी मुऊ लाज ॥ सु० ॥ २१ ॥ तेमादें वहेली चाहार करूं रे, नहिंतर सघलां लोक ॥ मारे ए चंमालिणी याकरी रे. श्यो हवे एहनो शोक ॥ सु० ॥ २२ ॥ राजसनायें पाठो वियो रे, वेो नृप उदास ॥ जोजो नवियण तुमें जावें करी रे, कडुन कर्मविलास ॥सु०॥ २३ ॥ त्रीजे खंमें दशमी ढालमां रे, चित्त फरियुं नरराज ॥ रामविजय कहे धूर्त्तकलायकी रे, विहि पण यावे वाज ॥ सु०॥२४॥ स ० ॥ २८०॥ श्लोक ॥ ७ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ नृपति ते वेसारियो, मित्रानंद नजीक ॥ शुं साहस के मंत्रवल, जांखो वचन तहकीक ॥ १ ॥ कुलकमागत माहरे, मंत्र अबे वलि एक ॥ पण साहस विए नवि फले, सुख राजन सुविवेक ॥ २ ॥ सभा विस aal तदा, वेदु वेग एकांत ॥ नृप कहे महारी पुत्रिका, मारी सही नहिं त्रांति ॥ ३ ॥ हवे उपकारी तुं मव्यो, तेहनो कर निस्तार ॥ कहे कुंवर तुम कुल ती, किम एहवी होय नारि ॥ ४ ॥ नूप जणे संशय किश्यो, जलद ऊपनी जोय ॥ जलवाला जननें हो, कहो कुप कारण सोय || ५ ॥ हिम सहेजें शीतल दुवे, पण वाले वनराई ॥ ए अंतरनी वारता, कोणें कली न जाय ॥ ६ ॥ जाएं कुलमां कपनी, कल्पवेली उपमान ॥ पण जनमूल उच्छेदवा, श्रइ कूहाडी समान ॥ ७ ॥ मित्र कहे माहाराजजी, म करो फिकर लगार || नजरें देखाडो मुने, करशुं तस उपचार ॥ ८ ॥ राय कहे जाई जुन, कन्या मंदिरमांहे ॥ सूती कवी सा जुए, व्यावंतो उत्साह || | || जेणें मुफ कंकण हसुं, बुरिप्रहार ए दीध ॥ ते ए नर होवे सही, एम मन निश्रय कीध ॥ १०॥ राजदुकम विल इल समे, या वे नहिं निःशंक || घासन मांमधुं चेतवा, मूकी मन निःशंक ॥ ११ ॥ ॥ दाल ग्यारसी ॥
|| देशी हमीरियानी ॥ कुमरी कहे कर जोडिनें, कुल काजें तुमें थान
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