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जैनकथा रत्नकोष नाग बीजो. त पासें ॥ तिर्यंचरूपें शिष्य तणी परें, दीसे गुन अन्यासें ॥ ॥ १३ ॥ एक मृगलो जाति समरणथी, मुनि पूरव नवने हें ॥ मुनिवर साथे जाय ने आवे, सेवा करे निज देहें ॥ वं०॥ १४॥ काष्ठहार मुख खोले वनमां, ते हरणो मुनि माटें ॥ गुड़ बाहारादिक देखी नासे, मुनि चालो ए वाटें ॥ वं० ॥ १५ ॥ मुनि पण तस आग्रहथी जाये, पारणे लेवा आहार ॥ एम दिन दिन करतां एक दिन मृगें, दीठा तिहां रथकार ॥ वं० ॥१६॥ आहार देखि सुजतो ते मृगलो, शानायें मुनिने नांखे ॥ एम कही मुनि वर बागल चाले, मृगलो मारग दाखे ॥ ॥ १७ ॥ रथकारें दीठा मुनि वरने, मासखमण तपकारी ॥ण अटवीमां कल्पतरुपरें, मुनिवर ए नि रधारी ॥ वं० ॥ १७॥ मुफ लगें किहांथी एह तपस्वी, माहारूपश्वी शां त ॥ महातेजस्वी माहागुणवंता. दीसे एह महांत ॥ वं० ॥१५॥ चोथे खंमें ने अधिकारें, बीजी ढाल रसाल ॥ पद्मविजय कहे रथकारकनां, जा ग्यां जाग्य विशाल॥०॥२०॥ सर्व गाथा ॥ ६ ॥
॥दोहा॥ ॥ अहो नाग्य आज माहरु, थाव्या श्रीज्ञषिराय ॥ पदकज प्रणमे साधना, आणंद अंग न माय ॥ १ ॥ स्वामी मुफ पावन करो, ब्यो ए गुरू आहार ॥ मुनि पण योग्य जाणी हवे, चिंते श्म निर्धार ॥२॥ शुद्ध पात्र को पेखीयें, जो नवि लावु याहार ॥ तो पुण्यमां अंतरायनो, कारण था निरधार ॥३॥ करुणानिधि एम चिंतवी, निरपेदी निजदेह ॥ मृगलो मन हरखे घj, आहार लिये मुनि तेह ॥ ४ ॥ मुनि रथकारक देखीने, मृगलो चिंते एम ॥ धन्य ए रथकारक जिवं, मुनि पडिलान्या के म ॥ ५ ॥ धन्य एह गुरु निःस्टही, तारण तरण जहाज ॥ ढुं नवि काहि करी शकुं, धिक जमवारो आज ॥ ६ ॥ धर्म ध्यान ततपर निहुँ, कना डे एम जाम ॥ यदी तरुमाल तिहां, त्रूटी वायरे ताम ॥७॥ चंपायात्र एये जणा, काल करी ततखेव ॥ पद्मोत्तर वैमानमां, ब्रह्मलोकें सहु देव ॥७॥
॥ ढाल त्रीजी॥ ॥ माली केरा बागमां ॥ मन जमरा रे ॥ ए देशी ॥ सो वरस ब्रत पा लीयुं मुनिराजे रे, दे उपयोग ते राम ॥ देव विराजे रे ॥ मार्ज देखे त्रीजी नरकमां दु:ख लेहता रे, वैक्रियशरीर करे ताम॥ सुख बद वहेता रे ॥१॥