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होना, ग्रहण का होना, सूर्य के उत्तरायण व दक्षिणायन का होना इत्यादि सभी खगोल सम्बन्धी तत्त्वों का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया है।
२. भूलोक-इस प्रकरण में पुस्तक निर्माता ने जम्बूद्वीप आदि द्वीपों और लवण समुद्रादि समुद्रों का संक्षिप्त परिचय दिया है। इनमें तेरह द्वीप तक के द्वीपों और समुद्रों पर ही विशेष प्रकाश डाला है क्योंकि इन्हीं तेरह द्वीप तक अकृत्रिम चैत्यालय पाये जाते हैं। अढ़ाई द्वीप के द्वीप और समुद्रों का विशेष विवरण दिया गया है। कितनी भोग भूमियां और कितनी कर्म भूमियां अढ़ाई द्वीप में हैं उनका संक्षिप्त विवरण और इन क्षेत्रों में होने वाली गंगादिक नदियों का और इनके परिमाण आदि का वर्णन भी पुस्तक में भलो प्रकार किया है।
३. प्रकृत्रिम चैत्यालय-पुस्तक में प्रकृत्रिम त्यालयों का स्वरूप भी दिखलाया है। जम्बूद्वीप में ७८ पोर कुल मध्य लोक में ४५८ चैत्यालय कहाँ-कहाँ है, इनको पृथक-पृथक बतला कर चैत्यालयों तथा प्रतिमानों का स्वरूप भी संक्षिप्त रूप से समझाया गया है।
इस प्रकार पुस्तक को आद्योपान्त देखने से पता चलता है कि लेखक का उपक्रम सराहनीय एवं प्रयोजन भूत है हमें जिनेन्द्र के वचनों पर विश्वास करके प्रागम प्रमाण को विशेष महत्त्व देना चाहिये क्योंकि इस युग में प्रत्यक्ष दृष्टा सर्वज्ञ का तो प्रभाव है अतः उनके प्रभाव में उनकी वाणी को ही प्रमाण मानकर उसमें प्रास्था रखनी चाहिये ।