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• जन ज्ञानोदय ग्रंथमाला राजवार्तिक को मूल संस्कृत में चतुर्थ अध्याय के १२ वें सूत्र में---सूर्य, चन्द्र के विमान का वर्णन करते हुये "प्रष्टचत्वारिंशघोजनकषष्टि भागविकभायामानि तस्त्रिगुणाधिकपरिषीनि चतुविशतियोजनकषष्टिभागबाहुल्यानि अर्धगोलकाकृतीनि" इत्यादि अर्थात्-यह सूर्य के विमान एक योजन के इकसठ भाग में से अड़तालीस भाग प्रमाण आयाम वाले कुछ अधिक त्रिगुणी परिधि वाले एक योजन के इकसठ भाग में से २४ भाग वाहल्य (मोटाई) वाले अर्ध गोलक के समान आकार वाले हैं। १६ व्यास । ३४ मोटाई।
उसी प्रकार चन्द्र के विमान के वर्णन में-"चन्द्र विमानानि षट्पंचाशत् योजनकषष्टिभागविष्कभायामानि अष्टाविंशतियोजनकषष्टिभागवाहल्यानि" इत्यादि । अर्थात्-चन्द्र के विमान एक योजन के ६१ भाग में से ५६ भाग प्रमाण व्यास वाले एवं एक योजन के ६१ भाग में से २८ भाग मोटाई वाले हैं । १६ व्यास । ३६ मोटाई।
इसी प्रकार की पंक्ति को रखकर स्वयं ही विद्यानंद स्वामी ने श्लोक-वार्तिक में उसका अर्थ योजन मानकर उसे लघु योजन बनाने के लिये पांच सौ से गुणा करके कुछ अधिक ३६३ की संख्या निकाली है । देखिये-श्लोकवार्तिक अध्याय तीसरी का सूत्र १३ वां।