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जैन जगती ® अतीत खण्ड 8 पद योग्यता पर थे मिले, वंशानुगत अब हो गये; उत्थान के यों द्वार सब हा! बंद सबके हो गये। उन्मार्गगामी हो भले, द्विज तो पतित होता नहीं; हो उर्ध्वरेता, धर्म-चेता शत, द्विज होता नहीं ॥ ३७४ ॥ हे वैश्यवर्णज बन्धुओ ! निज वर्ण पहिले देख ले; ये गोत्र इतने वर्ग में आये कहाँ से पेख ले। जब वैश्य कुल में गोत्र को हम सोचने लगते कभी; मिलते वहाँ पर गोत्र सब द्विज, शूद्र, क्षत्री के तभी ।। ३७५।।
थी कर्म से सब जातियें, ये गोत्र हैं बतला रहे; इतिहास, धामिक ग्रंथ भी सब पुष्टि इसकी कर रहे । कारण कहो फिर कौन-सा जो ये पटावृत हो गये; ताला लगाकर द्वार पर द्विज चोर भीतर सो गये ! ॥३७६।।
सब दृष्टि से द्विज भ्रष्ट है, पर उच्च थल नहिं छोड़त; जो दीखता चढ़ता नया, पत्थर उसे द्विज मारते । द्विज सभ्यता, आदर्शता के शृङ्ग पर हैं चढ़ चुके ये पहुँच कर इस शृङ्ग पर अधिकार पूरा कर चुके ॥ ३७७॥
उन पूर्वजों के सदय उर का किस तरह वर्णन करें; जो शूद्र का भी कर पकड़ अविलम्ब द्विज सदृश करें। पथ में गिरे को वे उठाते गोद में थे दौड़ कर; टूटे हुये को एक करते थे सदा वे जोड़ कर ॥ ३७८ ।।