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जैन जगतो
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ॐ अतीत खण्ड,
मैं पूर्व हूँ बतला चुका, सब शौर्य-परिचय दे चुका; था आत्म-बल कैसा हमारा, वह तुम्हें बतला चुका । जब आत्म-बल से शत्र को हम कर विजय पाते नहीं; तब खड्ग के अतिरिक्त साधन दूसरा फिर था नहीं ॥ ३६६ ॥ जैसा हमारा धर्म था, वैसा हमारा आज है; यह मानते लजित नहीं-वैसे नहीं हम आज हैं। हम पूछते हैं आपसे, क्या आप वैसे हैं अभी ? फिर दोष सब हम पर धरो, आती तुम्हे नहिं शर्म भी ॥३७०।। इस बात को आगे बढ़ा झगड़ा न करना है हमें; विषकुम्भ घातक फूट का जड़-मूल खोना है हमें । अब क्या, किसी का दोष हो, यह भ्रष्ट भारत हो चुका; हम-आपनन का नाश हो यदि, स्वर्ग फिर भी हो चुका ॥३७१।।
वर्णाश्रम और वैश्य वर्णहैं वर्ण चारों आज भी, निर्जीव चाहे हो सभी; हा! वर्ण विकृत हो गये, सब वर्ण-शंकर हैं अभी। उन पूर्वजों ने वर्ण-रचना क्या मनोहर थी करी; द्विज डोमियों ने आज उसको गरल से कटुतर करी ।। ३७२ ।। हत्वीर्य क्षत्री हो भले, पर छत्रपति कहलायगा; चाहे निरक्षर विप्र हो, पर पूज्य माना जायगा। तस्कर भले हो प्रथम हम, पर शाह हम कहलायँगे; दुष्कर्म कितने भी करो नहिं शूद्र द्विज कहलायेंगे ॥ ३७३ ॥