SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन जगती . *Becamecar * अतीत खण्ड ® लड्डू कलह में तुम बताओ आज तक किसको मिले; पद-त्राण के अतिरिक्त भाई ! और दूजे क्या मिले। अपशब्द, निंदावाद तो हा ! हंत ! मण्डनवाद है; जब तक न मूलोच्छेद हो, फिर क्या जिनेश्वरवाद है !! ॥ ३५६ ।। हा! ये दिगम्बर श्वेत अम्बर श्वानवत हैं लड़ रहे; पद-त्राण पावन स्थान में इनमें परस्पर चल रहे । हा ! नाथ ! यह क्या हो गया ! निशिकर अमाकर हो गया! वृद्धत्व में अनुभव हमारा भार हमको हो गया !! ।। ३६० ॥ बिगड़ा न कुछ भी है अभी, विगड़ा यदि हम सोच लें; ऐसे न निःमृत प्राण है जो एक पद दुर्भर चलें। यदि अब दशा ऐसी रही, तब तो हमारा अन्त है; हा! हंत ! हा! हा! अन्त ! हा! हा! हंत! हा ! हा! अन्त है ।।३६१।। ___ जैन धर्म पर अत्याचारनृप33 ° कल्कि के दुष्कृत्य33 १ हम कुछ चाहते कहना नहीं; कुछ पुष्यमित्र 33 २ महीप का व्यवहार भी कहना नहीं। दुष्कृत्य इनके आज भी मुद्रित हृदय पर पायँगे; जिनको श्रवण करते हुये श्रुत आपके खुल जायँगे ॥ ३६२ ।। पहिने हुये पद-त्राण तक ये शीप पर थे जा चढ़े करने हमें ये देश बाहर के लिये आगे बढ़े । हमको गिराया अग्नि में, हमको डुबाया धार में, न विचार था उस काल में, इस काल भी न विचार में ॥ ३६३ ॥ ७३
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy