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जैन जगती Pancaacasi
अतीत खएड 8
महावीर का उपदेशअपवर्ग की संप्राप्ति में यह जाति बाधक है नहीं; हो शुद चाहे राजवंशी, भेद इससे कुछ नहीं। बाहर भले ही भेद हो, भोतर सभी जन एक हैं; क्या शूद्र की, क्या विप्र की, आत्मा सभी की एक है ॥ ३२६ ॥ चाहे भले ही शूद्र हो, सद्भाव का यदि केत है; बस चक्रपति से भी अधिक हमको वही अभिप्रेत है। संमोह, माया, लोभ जिसने काम को जीता नहीं; वह उच्च वर्णज हो भले, पर डोम से वह कम नहीं ॥ ३३०॥ है सत्यव्रत जिसका नहीं, घट में नहीं जिसके दया; शुचि शोलवत पाला नहीं, नहिं दान जीवन में दिया; वह भूप हो या विप्र हो, हो श्रेष्ठिसुत चाहे भले; वह मोक्ष पा सकता नहीं, उस ठौर किसका वश चले ॥ ३३१ ॥ ___महावीर द्वारा जैनधर्म का विस्तार और उसका स्थायी प्रभावसर्वत्र आर्यावर्त में यों धर्म-ध्वज फहरा गई; तलवार हिंसावाद की बस टूट कर दो हो गई। सम्राट, राजा, माण्डलिक फिर जैन कहलाने लगे; विस्तार हिंसावाद के सर्वत्र फिर रुकने लगे ।। ३३२ ।। अन्त्यज तथा द्विजगण सभी वीरानुयायी हो गये; गणधर हमारं विप्र थे, वीरावलम्बी हो गये। सम्प्रति नरप के काल तक कितने कहो जैनी हुये ? संक्षेप में हम यों कहें चालीस कोटी थे हुये ॥ ३३३॥