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- जैन जगती
अतीत खण्ड
गुरुकुल अब ब्रह्म-वेला आ गई, घण्टे चतुर्दिक बज रहे; गुरु-पर्ण-कुटि को जाग कर सब शिष्यगण हैं जा रहे । गरुदेव को हैं शिष्यगण गुरुदेव-वंदन कर रहे; गुरु-शिष्य के उस काल में सम्बन्ध सुन्दर हैं रहे ॥ २६४ ॥ श्रुति-शास्त्र पढ़ते पाठकों के कलित कलरव हो रहे; नक्षत्र, ग्रह, तारे तथा भूलोक शिक्षण हो रहे । बैठे कहीं पर शाकटायन३०° शब्द व्याख्या कर रहे, चौषठ कला दशचार विद्या शिष्य गुरु से पढ़ रहे ॥ २६५ ।। ऐकान्त आये स्थान में अब शस्त्र-शिक्षण लेख लो; ये पुष्पवत गुरुराज को लगते हुए शर पेख लो। कुछ लक्ष्य-भेदन, शब्द-भेदन, रण परस्पर कर रहे; रविदेव को ढकने किसी के कर कलावत चल रहे ॥ २६६ ।। हे वाचकों ! अब घाण ये सब एक पर चलने लगे; जाकर उधर शर चक्र से कच-ब्याल से कटने लगे। गिरिराज का कोई गदा से चूर्ण-मर्दन कर रहा; करतल लिये अगखण्ड कोई चक्रवत घूमा रहा ।। २६७ ॥
उपाश्रयये मंच पर बैठे हुये उपदेश गुरुवर दे रहे इस लोक के, परलोक के ये मर्म सब समझा रहे। सब सुर, असुर, देवेन्द्र है व्याख्यान में बैठे हुये; परिषद विसर्जित होगई जिनराज-जय कहते हुये ॥२६८ ।।