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जैन जगती BOSSAcsst
® अतीत खण्ड क्षत्री सभी थे देश-रक्षक, विप्र विद्या-ज्ञान के थे शूद्र सेवी देश के, थे वैश्य पोषक प्राण के । पोषण-भरण यदि आज तक हम, देश का करते नहीं; इस रूप में यह देश तुमको आज यों मिलता नहीं ।। २७४ ॥
व्यापार-कला का प्रभाव व्यापार से ही जन्म है इस गणित, ज्योतिष का हुआ; व्यापार की सोपान पर साम्राज्य भी प्रोत्थित हुआ। श्रुति वेद, आगम, शास्त्र का उद्भव इसी से है हुआ; कौशल, कला, विज्ञान का व्यापार ही सृष्टा हुआ ।। २७५ ।।
वैश्य-कुल की साक्षरता हाँ ! वैश्य कुल में आज भी अनपढ़ न मिल सकता कहीं; तब सुखद काल सुवर्ण में संशय न रहता है कहीं । व्यापार करना था हमारा कर्म सब हैं जानते; फिर अज्ञ रहकर कर सके व्यापार क्या तुम मानते ? ॥२७६।। यतिवर्य्य जिनको आज भी गुरुराज कहते हैं सभीथे ज्ञान हमको दे रहे आगम, निगम, जग के सभी । हर ठौर गुरुकुल खुल रहे थे, छात्र उनमें पढ़ रहे; दश-चार विद्या-विज्ञ हो वे लौट कर घर जा रहे ।। २७७ ॥
वातावरण हा ! उस समय का और ही कुछ और वातावरण था; प्रिय पाठको ! सच मानिये वह काल-वर्ण सुवर्ण था । कंचन-शिला पर बैठ कर मणिहार हम थे पो रहे; भिक्षार्थ आये भिक्षु को फिर दान में वह दे रहे ।। २७८ ।।