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जैन जगती Penis ROO
* अतोत खण्ड ®
कितने हमारे शास्त्र थे, हा ! शेष आधे भी नही; इन अर्द्ध शास्त्रों में कहें क्या अंश पूरे भी नहीं ! द्वादशिक'६७ वत्सर काल विभुवर ! रूग्ण पर श्रावण हुआ! अवशिष्ट सब साहित्य का भी अंत फिर पूरा हुआ! ॥ १६४॥
देवर्धिगणि आगम-निगम हैं नव्य विधिसे लिख गये; परिलुप्त होते जिनवचन को प्रगट फिर से कर गये। अनुवाद, टीका आदि फिर पाकर समय होते रहे। नव नव्य इन पर प्रथ फिर विद्वान जन लिखते रहे ॥१६॥
विश्रुत पुरातन वेद ६८ जिन-साहित्य के ही अश है; अब जिनवचन से हो विलग वे हो गये अपभ्रंश हैं। यो छिन्न होकर भी अभी साहित्य है पूरा अहो ! जीवन जगाने के लिये वह आज भी शूग अहो ! ॥१६६।। दुनियाँ हमारे दर्शनों ५६९ को देख विस्मित हो रहीं; इन दर्शनों से ज्ञान की विकशित कलाएँ हो रही। उन पूर्वजोंने दर्शनों में तत्व कैसा है भरा ! अन्यत्र ऐसा आज तक कोई किसी ने नहिं करा ॥१६७।।
सिद्धान्त ऐसे जटिल हैं, हम समझ भी सकते नहीं; इनकी उपेक्षा हेतु इस करते निरक्षर हम नहीं ? सिद्धान्त जिन-सिद्धान्त-से पाश्चात्य ७०अब स्थिर कर रहे; वे देख लो अब जीव-शोधन तरु, लता में कर रहे ।। १६८ ।।