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जैन जगती
* अतीत खण्ड
हमारे विद्वान-कलाविद हम आप मुंह से क्या कहें कितने बड़े विद्वान थे, पर आज कहना ही पड़ेगा--सब तरह गुणवान थे। जब हीन हमको देशवासी बन्धु भी कहने लगें; तब क्यों न हम प्रतिकार में उत्तर जरा देने लगें ॥ १४४ ॥ ये मंत्र-विद्या, तंत्र-विद्या, यंत्र-विद्या, भूत वा, वैक्रिय-असुर-सुर-यक्ष-विद्या दृष्ट, अन्तभूत वा, ये मृत्यु-जीवन-क्षार विद्या, रस-रसायन-पाक भी, ये ऐन्द्रजालिक, गणित,ज्योतिष ज्ञात थी हमको सभी ॥ १४५॥ जल-वह्नि-बंधन, पवन-स्तंभन, चित्र-वर्पण की कलाहैं आज ग्रंथित मिल रही ये इस तरह बहतर'3 ° कला। इन नर-कलाओं के सिवा नारी-कलायें और थीं; नारी-कला'3' में नारिये सब भाँति से शिर-मौर थीं ॥ १४६ ॥ वाणिज्य, नर्तन, चित्र, नय, संगीत, सद्विज्ञान वा, आतिथ्य, वैद्यक, काव्य, व्यञ्जन, दंभ, जल्पन, ज्ञान वा, आकार-गोपन, हस्त-लाघव, धर्ममय सब नीतियें, इनमें कलाविद् थीं हमारी नारिये, नवयुवतियें ॥ १४७ ॥ विद्वानजग में अधिक विद्वान हमसे था नहीं कोई कहीं; हम ही नहीं हैं कह रहे, अब कह रही सारी मही। पर हाय ! हमसे अनुग, अंगज क्यों सदा जलते रहे; कलिकाल-मदिरा-मण से मत-भ्रष्ट हो बकते रहे ।। १४८॥