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*जैन जगती
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* अतीत खण्ड
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द्वादश २ हमारे चक्र - पाणी धर्म ध्वज लहरा गये; नवदेव २३, नवप्रतिवासुसुर २४ कौशल अनन्वय कर गये । उस मोक्ष - चेता भूप का बस भरतचक्री २५ नाम था; जिस पर पड़ा इस देश का भारत अनन्वय नाम था ॥ ४६ ॥
अरिहंत जिनवर षष्ट श्रष्टादश' २६ हमारे होगये; तप, तेज, बल, शुचि शील की वे सीम अन्तिम होगये । किन्नर, सुरासुर, मनुज के वे लोक-लोका-धीप थे; निरपेक्ष थे, निर्लेप थे, परमात्म चक्राधीप थे ॥ ५० ॥
सब राज - कुल सम्पन्न थे, सब सार्वभौमिक भूप थे; नरराज थे, नर-रूप में अखिलेश के सब रूप थे । साम्राज्य इनका सुखद था, दुख, शोक, चिन्ता थी नहीं, मिथ्या हिंसामय कहीं भी स्थान मिलता था नहीं ॥ ५१ ॥
इनके अनूपम त्याग की नर कौन समता कर सका ? साम्राज्य, सुख, परिवार यों नर कौन तृणवत तज सका ? उपसर्ग सहकर भी कभी दुर्भाव थे भाते नहीं; इनके उरों में बन्धु-रिपु के भेद जगते थे नहीं ॥ ५२ ॥
वे शान्ति में विग्रह कभी उत्पन्न करते थे नहीं; क्रिमि, कीट का भी अर्थ हित अपकार करते थे नहीं । धन-माल, वैभव, राज से उनको न कुछ भी लोभ था; आत्मार्थ तजते विश्व को उनको न होता क्षोभ था ॥ ५३ ॥
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