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जैन जगती . भविष्यत् खण्ड है रुकती हुई है लेखिनी ! आशा मना ले आज तू; जाती हुई जिनराज से कुछ विनय कर ले आज तू । तू छोड़ कर कर जा रही, कर कंप मेरा कर रहा; जाने न दूंगा मैं प्रिये ! प्रस्ताव दूजा रख रहा ॥१६॥ महावीर-गीति काव्य की प्रारम्भ रचना कर चुकी; जयपठ शलाका-नृप-चरित की नींव गहरी कर चुकी । अतिरिक्त इनके भी मुझे तू भक्त अपना कह चुकी; मैं भक्त तेरा हूँ वरे ! मुझसे अभिन्ना बन चुकी ।।१६६।।
श्राशे ! आश ! अहो ! तुम धन्य हो, आराध्य देवी हो सदा; आशे ! तुम्हारा विश्व में अस्तित्व नहिं यदि हो कदादुखभूत इस संसार में होवे शरणतल फिर कहाँ ? असहाय, निर्बल, दीन को आशे ! शरण हो तुम यहाँ ॥१६॥ कितने न जाने प्राणियों का कर चुकी हो तुम भला; जब जब विपद जन पर पड़ी, आशे! तुम्हारा बल मिला। आशे ! तुम्हारी भक्ति कर बदजात भी स्वामी बने; निर्जन विपिन, गिरिदेश भी आशे ! सजन नामी बने ॥१९८॥ बल,-शक्ति, मति,-धीवाहिनी आशे ! सदा हो दाहिनी; हो आर्तजन को तू सुलभ धृति, सुमति, रति, गतिदायिनी । आशे ! तुम्हारे ही भरोसे जैन-जगती आज है; आशे ! हमारे में रहो, तेरे करों में लाज है ॥१६॥