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जैन जगती S HRESTHA
ॐ भविष्यत् खण्ड ®
तुम में न कोई जोश है, उत्साह है, बल-स्फूर्ति है; चलती हुई बल वाष्प के मानों उपल की मूर्ति है। या विश्व में सबसे अधिक जब वृद्ध भारतवर्ष है; वृद्धत्व में होते किसी के क्या कहीं उत्कर्ष है ? ॥११०।।
अपवाद, निन्दावाद में खोते रहोगे वक्त तुम ? कब तक रहोगे यों,प्रिया में हाय ! रे! अनुरक्त तुम? पहिचान तुम अब तक सके नहिं हाय ! अपने आपको; तुममें अतुल बल, शौर्य है,-दुष्कर न कुछ भी आपको ॥१११॥ नहिं जाति के, नहिं धर्म के, नहिं देश के तुम काम के अपनी प्रिया के काम के, आराम के तुम काम के। लड़ना अकारण हो कहीं तुम हो वहाँ पर काम के तुम मसखरों के काम के-क्या हो किसी के काम के ? ॥११२।। पुरुषत्व तो होता फलित बस पूर्ण यौवन-काल में; प्रतिभा, कला, बल, शक्ति होते प्रौढ़तम इस काल में। तुम सब गुणों में प्रौढ़ हो-नहिं ज्ञात है शायद तुम्हें ? आगे बढ़ो यदि दो चरण देरी लगे क्या कुछ तुम्हें ? ॥११३॥
तुमको तुम्हारे काम के अतिरिक्त है अवसर कहाँ ! निंदा, अनर्गल, झूठ, मिथ्यावाद से अवसर कहाँ ! अधिकांश की मन्दाग्नि से बिगड़ी दशा है पेट की ! अवशिष्ट की, मैं क्या कहूँ ? बिगड़ी दशा पाकेट की !! ॥११४।।
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