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जैन जगती
ॐ भविष्यत् खण्ड
श्रीमन्त ! केवल आप हो बस एक ऐसे वैद्य हैं; ये रोग जिनसे देशके सुन्दर, सरलतम छेद्य हैं। अधिकांश रोगों के तथा फिर पितृ भी तो आप हैं ; श्रीमन्त ! जिम्मेदार इस बिगड़ी दशा के आप हैं ।। ६० ।। सबसे प्रथम श्रीमन्त ! तुम इन, इन्द्रियों को वश करो; तन, मन, वचन पर योग हो, धन धर्म के अधिकृत करो। तन, मन, वचन, धन आपका हो देश भारत के लिये; रस, रास, छोड़ो आज तुम निज जाति-जीवन के लिये ॥ ६१ ॥ अपखर्च को अब रोक दो, अब दोन भूमी हो चुकी ! धन, धर्म, पत, विश्वास की सब भाँति से इति हो चुकी! अनमेल, अनुचित पाणि-पीड़नसे तुम्हें वैराग्य हो, वह कर्म-संयम, शीलमय-फिरसे जगा सद्भाग्य हो ।।१२। अब, मूर्खता से आपको धनधर ! नहीं अनुराग हो; मूर्खे ! तुम्हारी राह लो इनमें न तेरा राग हो। दल साम्प्रदायिक तोड़कर घरको सुधारो आज तुम; इस दीन भारत के लिये दो हाथ देदो आज तुम ॥ ३॥
निर्धन तुम हो पुरुष, पुरुषार्थ के नरदेह से अवतार हो; पुरुषार्थ ही प्रारब्ध है, फिर क्यों न दलितोद्धार हो । पुरुषार्थ तो करते नहीं, तुम देव को रोते रहो; क्या दिन भले आजायँगे दिन में कि जब सोते रहो ॥१४॥