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*जैन जगती
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* भविष्यत् खण्ड
तुम साम्प्रदायिकता तजो, तुमको न इससे नेह हो; हमको मिलाने में तुम्हारे एक मन, धन, देह हो । करते रहोगे इस तरह दृढ़ हाय ! क्या दल-बंदियाँ ? कब आयगी वह भावना, जब खोल दोगे ग्रंथियाँ ? ॥ ६५ ॥
व्याख्यान की नेता जनो ! इस काल में नहिं माँग है; खर- रेंगना, कपि-कूदना तो मसखरों का स्वांग है। व्याख्यान के ही साथ में कुछ काम भी करते रहो; बस कार्य में जो तुम कहो परिणित उसे करते रहो ॥ ६६ ॥
होते तुम्हारे स्वागतों को रोकते हैं हम नहीं; पर ईश के समतुल तुम्हें हम मानले- संभव नहीं । स्वागत तुम्हारे स्टेशनों पर शौक से होते रहेंपखर्च जब तुम रोकते, फिर खर्च यों होते रहें ? ॥ ६७ ॥
नेताजनो ! तुम स्वागतों की चीज़ केवल हो नहीं; व्याख्यान देने मात्र से बन जायगा सब सो नहीं । कर से करो अब काम तुम - यह काम का ही काल है; दुर्गुण हमारे हैं अधिक, दुदैन्य- सैन्य विशाल है !! ॥ ६८ ॥
अतिचार, पापाचार दिन-दिन लेख लो हैं बढ़ रहे ! अनमेल, अनुचित पाणि-पीड़न रात-दिन हैं बढ़ रहे ! इस साम्प्रदायिक भूत से ही भूत वैभव खो चुके ! जिनके घरों में भूत हो - उनके जगे घर सो चुके !! ॥ ६६ ॥
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