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पुस्तक की मूल भावना है कि जैनों में बढ़ता हुआ भेदभाव नष्ट हो । बेशक पृथग्भाव हास का और सम या समन्वय भाव विकास का द्योतक है। अनेकान्त यदि कुछ है तो एकता का प्रतिपादन है । एकांत वृत्ति अनैक्य बढ़ाती है । यदि जैनों में फूट है तो यह झूठ है कि वे अनेकान्तवादी हैं। अनेकान्त जिसकी नीति हो वह वर्ग कट फँट नहीं सकता। अनेकान्त अहिंसा का बौद्धिक पर्याय है। द्वतवृत्ति दिगंबर और श्वेताम्बर के रूप में जैन अखण्डता के दो भाग करके ही नहीं रुक सकती। वह तो समाज-शरीर के खण्ड-खण्ड करेगी। वह हिंसा की, एकान्त की, वृत्ति ही तो है। सब इतिहास में सदा विनाश की यही प्रक्रिया रही है। अपने बीच का अभेद जब भूल जाय और भेद खाने लग जाय तब समझ जाना चाहिए कि मृत्यु का निमंत्रण मिल गया है।
मैं नहीं जानता कि जैन आपस में मिलेंगे। यह जानता हूँ कि नहीं मिलेंगे तो मरेंगे । यह पुस्तक उनमें मेल चाहती है। अतः पढ़ी जायगी तो उन्हें सजीव समाज के रूप में, मरने से बचने में मदद देगी। जरूरी यह कि जैसे अपने वर्ग के भीतर वैसे इतर वर्ग के प्रति मेल की ही प्रेरणा उससे प्राप्त की जाय ।
मैं लेखक के परिश्रम और सद्भावना के लिये उनका अभिनंदन करता हूँ। दरियागंज दिल्ली
जैनेन्द्रकुमार ११-७-४२