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दो शब्द
कला की ओर से काव्य की परख मुझ में नहीं । फिर भी श्री दौलतसिंहजी 'भरविंद' का आदेश शेष रहा कि मैं उनकी पुस्तक पर 'दो शब्द' । सुयोग की बात मेरे लिये यह है कि प्रस्तुत काव्य केवल या शुद्ध काव्य नहीं है। वह एक वर्ग-विशेष के प्रति सम्बोधन है । जैन परम्परा में से प्राण एवं प्रेरणा पाने चाले समाज के हित के निमित्त वह रचा गया है। इससे उसकी उपयोगिता सीमित होती है। पर तात्कालिक भी हो जाती है। परिणाम की दृष्टि से यह अच्छा ही है।
पुस्तक में तीन खण्ड हैं । पहिले में जैनों के अतीत की महिमामय अवतारणा है । दूसरे में वर्तमान दुर्दशा है। अन्त में भविष्य की ओर से उद्बोधन है। तीनों में चोट है और स्वर उष्म है।
निस्संदेह वर्तमान के प्रभाव की क्षति-तूर्ति में लेखक ने अतीत को कुछ अतिरिक्त महिमा से मंडित देखा है। पर कवि सुधारक के लिये यह स्वाभाविक है । ऐतिहासिक यथार्थ पर उसे न जाँचना होगा। उसके अक्षर और विगत पर न अटक कर उसके प्रभाव को ग्रहण करना यथेष्ट है। जैनों में अपनी परम्परा का गौरव तो चाहिये । वह आत्मगौरव वर्तमान के प्रति हमें सत्पर और भविष्य के प्रति प्रबुद्ध बनावे । अन्यथा इतिहास के नाम पर दावा बन कर वह दर्प और डोंग हो जायगा जो योथी वस्तु है। वह तो कषाय है, साम्प्रदायिकता है, और मेरा अनुमान है कि लेखक के निकट भी वह इष्ट नहीं है