________________
जैन जगती
® वर्तमान खण्ड
द्यू, फाटका, सट्टा हमारा मुख्य धंधा रह गया! शायद जरा है आगई, मस्तिष्क जिससे फिर गया! जापान, जर्मन, फ्रांस जिनमें अन्न तक भी था नहीं; सम्पन्न वे अब हो गये, अब शील भारत हा ! नहीं ॥२३० ।। सर्वस्व घर का जा रहा, हा ! क्यों न हम हैं देखते ! क्यों हम विदेशी माल में मिलता नफा है देखते ! सामान सारा भर गया घर में विदेशी हाय ! क्यों ! घर से स्वदेशी माल को हमने निकाला हाय ! क्यों ? ॥२३॥ हे नाथ ! ऐसा लक्ष्मि का कैसा विचिन्न स्वभाव है ? जो देशके प्रति बढ़ रहे कुछ भी नहीं सद्भाव है ! जब तक विदेशी माल का आना न रोका जायगा; यह उत्तरोत्तर दीन भारतवर्ष होता जायगा !! ॥ २३२ ।।
आत्म-बल व शक्ति जिस जाति का, जिस धर्म का जग में न कुछ सम्मान है। वह जाति जी सकती नहीं, जिसका न कुछ भी मान है। निज जाति का, निज देश का जिसके न उर में मान है। संतान ऐसी से कभी हा! बलवती आशा न है ।। २३३ ।। हे जैनियो! तुम सत्य ही बदनाम होने योग्य हो; संसार के जिन्दा जनों में तुम न रहने योग्य हो। हर देश के, हर जाति के हैं चरण आगे पड़ रहे; हो क्या गया ऐसा तुम्हें जो पद तुम्हारे अड़ रहे ? ॥ २३४ ।।
१२८