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*जैन जगती
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* वर्तमान खण्ड *
क्यों श्रावकों के दास गुरुवर ! आप यों हैं हो गये ? क्यों त्याग-संयम-शील-वित खोकर असाधू हो गये ? हमको लड़ाना ही परस्पर श्राज गुरुवर काम है ! करना इधर की उधर ही गुरु आपका अब काम है !! ॥ ६५ ॥
अब साधु तुम हो नाम के, वे साधु अब तुम हो नहीं ! अब साधु-गुण तो साधु में हा! देखने तक को नहीं ! तुम क्रोध क अवतार हो, तुम मान के भण्डार हो ! संसार मायामय तुम्हारा, लोभ के आगार हो !! ॥ ६६ ॥
भगवान् पद के प्राप्ति की इच्छा उरों में जग गई; सम्राट बनने से तुम्हारी कामनाएँ फल गई ? भगवान हो, सम्राट हो, तुम जगदगुरु आचार्य हो; भगवान पर कर लग रहे, भगवान कैसे आर्य ! हो ! ॥ ६७ ॥
मुनि वेष धरने से कहीं मन साधु होता है नहीं; जैसा हृदय में भाव है - बाहर झलकता है वही । तप-प्राण त्यागी, साधु तुममें बहुत थोड़े रह गये; भरपेट खाकर लौटने वाले सभी तुम रह गये ॥ ६८ ॥
गिरते न गुरुवर ! आप यों- हम दोन यों होते नहीं ! धन, धर्म, पत, विश्वास खोकर आज खर होते नहीं ! अभिप्राय मेरा यह नहीं की आप सब दोष है; कुछ आपका, कुछ काल का, अरु कुछ हमारा दोष है ॥ ६६ ॥
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