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जैन जगती. वर्वमान खण्ड
Recenter था एक दिन ऐसा कभी-हम में न कोई दीन था; पुरुषार्थ-प्राणा थे सभी सकता कहाँ मिल हीन था ? पर आज हमको पूर्व भव तो भूल जाना चाहिए; अब तो हमें इस काल में कुछ युक्ति गढ़ना चाहिए ॥१०॥ श्रीमन्त यदि कुछ कर दया कल कारखाने खोल दें, व्यापार हित हाटें कई भूभाग भर में खोल दें, तो बस हमें उठते हुये कुछ देर लगने की नहीं; हे नाथ ! क्या इस जाति का उत्थान होगा ही नहीं ?।। ६१ ।।
साधु-मुनि अब इतर मत के साधुओं को देखते हम आज हैं; तब तो हमारे साधु-मुनि आदर्श फिर भी आज हैं। तप, त्याग, संयम, शील में अब भी न इनक सम कहीं;
कुछ एक ऐसे भी श्रमण हैं, अपर जिनके सम नहीं ॥१२॥ । पर वेष धारी साधुओं की भूरि संख्या हो गई;
सद् साधु की आदर्श बस यों ज्योति तम में खो गई। मद् साधु तो मेरे कथन से रुष्ट होने के नहीं अरु नामधारी साधु से कुछ भीति मुझको रे! नहीं ।। ६३ ।। वंदन तुम्हें शतवार है, तुम धर्म के पतवार हो! पर वेषधारी साधुओ! तुम आज हम पर भार हो। तुमने उठाया था हमें, तुमने चढ़ाया है अहो! क्यों आज शिल पर शृङ्ग से तुमने गिराया है कहो ? ॥४॥