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________________ * जैन जगती * अतीत खएड नौ-नौ तुम्हारी शादियें हों - मार पर मरता नहीं; यों स्वत्व युवकों का हरो - तुमको न पर लज्जा कहीं ! लक्ष्मी ! अहो ! तुम धन्य ! हो-हम रूप नाना लेखते; दुष्प्रेम भाभी पुत्रवधु से हाय ! इनका देखते ॥ ५० ॥ हा ! जाति भूतल जा चुकी श्रीमंत तुम क्या बच चुके ? पञ्चास प्रतिशत हाय ! तुम में दोन भिक्षुक बन चुके ! अब द्यूत, सट्टा, फाटका श्रीमंत के व्यापार हैं; उद्योग धन्धे और सब इनके लिये निस्पार हैं !! ।। ५१ ।। तुम कल्प तक में बन्धुओ ! सट्टा न करना छोड़ते; फिर ओलियें तो वस्तु क्या ? बाकी न कुछ हा ! छोड़ते । यदि दीपमाला पर्व पर जो घृत-क्रीड़ा हो नहींहा ! अपशकुन हो जायेंगे - श्री तुष्ट संभव हो नहीं ॥ ५२ ॥ रसचार में, रतिवास में जीवन तुम्हारा जा रहा; लेटे हुए हो महल में, तन में नशा सा छा रहा । शतरंज, चौपड़, ताश के अभिनय मनोहक लग रहे; किलकारियों से महल के छज्जे अहो हैं उड़ रहे !! ॥ ५३ ॥ तुम साठ के हो - पत्नि हा ! है आठ की भी तो नहीं; तुमको सुतावत पत्नि से रतिचार में लज्जा नहीं । श्रीमंत हो, सरकार की भी है तुम्हें चिन्ता नहीं; टुकड़ा अगर मिल जाय तो कुकुर न 'हू' करता कहीं ॥ ५४ ॥ १२
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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