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________________ जैन जगती अतीत खण्ड नर नारि हैं या नारि नर-यह वेश कहता मी नहीं; 'नरवेश' नर का भी नहीं, 'रति-वेश' रति का भी नहीं। नर वेश भी जब है नहीं, नहिं नारियों का वेश है; यह कौन-सा फिर देश है, यह तो न भारत देश है !!।। ३०॥ खान-पान हे भाइयों ! हम जैन हैं, यह मान जन सकते नहीं; ऐसे कभी भी जैन के तो कार्य हो सकते नहीं। आमिष-विनिर्मित नित्य हम भोजन विदेशी खा रहे; बदनाम कर यों धर्म को हम जैन हैं कहला रहे ॥३१॥ 'बिसकी' 'बरण्डी' 'पारले-व्हाइन' हमें रुचिकर लगें; जापान-जर्मन-चीन के बिस्कुट हमें मधुकर लगें। हममें व मांसाहारियों में भेद अब क्या रह गया ? जल छान पीने में अहो! जैनत्व सारा रह गया ।। ३२।। फैशन ये युवक हैं या युवतिये-पहिचान में आता नहीं; पहिने हुये ये पेन्ट है, साया तथा पत्ता नहीं। शिर पर चमकती माँग है, नहिं मूछ मुँह पर हैं कहीं; नाटक-सिनेमा की कहीं ये नायिकायें हैं नहीं ? ।। ३३ ।। सर्वाङ्ग इनके वस्त्र में सबको प्रदर्शित हो रहे; निर्लज्जता की अवतरित ये मूर्ति सच्ची हो रहे । हा! जैन जगती ! आज तेरा शील चौपट हो गया; व्यभिचार से हम दूर थे-कट्य उससे हो गया ॥ ३४ ॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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