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जात सुधारी कि हांजू ।। तुम कहिये त्रिभुवनके नायक पटतर कौन तुह्मारी कि हांजू ॥६॥ और कहा परगट कर बरनौ देखहु मनहि विचारी कि हांजू ॥ ताके संग कहा तुम डोलौ कुलहि दिवावत गारी कि हांजू ॥ ७॥ भटकत फिरत चहूं गति मांही नरक सुरग गति धारी कि हांजू ॥ कबहूं भेष धरौ भूपतिको कवहूं कि कुष्ट भिखारी कि हांजू ॥८॥ कवहूं हय गय चढ़कर निकसत कवहूं कि पीठ उघारी कि हांजू ॥ कवहूं कि शील महाव्रत पालत कबहुं तकत परनारी कि हांजू ॥९॥ कवहूं कि टेढी पाग बधावत कवहं दिगम्बर धारी कि हाँज ॥ कबहूं होत इन्द्र पुनि चक्री कबहूं कि विद्याधारी कि हाजू ॥१०॥ कबहूं कामदेव पद पावत कवह निपट भिखारी कि हांजू ॥ कवहूं सोलम वर्ग विराजत कबहुं नरक गति धारी कि हांजू ॥ ११ ॥ कबहूं पशू कवहुं बस थावर कबहुं कि सुंडाधारी कि हांजू ॥ नटके भेष: धरे बहुतेरे सो गति भई है तुह्मारी कि हांजू ॥१२॥ जासों प्रीति करन की नाही तासों कैसी यारी कि हांजू ॥ छोडौसंग कुमति गनिका को घरतें देव निकारी कि हांजू ॥१३॥ व्याहौ सिद्ध वधू शिव बनिता जो है निबाहन हारी कि हांजू ॥ तृष्णा छोड़ धरौ नित सम्बर तजहु परिग्रह भारी कि हांजू ॥ १४॥ एकाकी तुम