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________________ ( १२० ) __ भी हानि न चितवन करना क्योंकि मनका शुभ धारण करना __ ही महावतोंकी रक्षा है ॥ तृतीय भावना-वचनको भी वशमें करना । जो कटुक, दुःखप्रद वचन है उसका न उच्चारण करना, सदा हितापदेशी रहना ।। चतुर्थ भावना-निर्दोष ४२ दोषरहित अन्न पाणी सेवन करना, अपितु निर्दोषोपरि भी मूञ्छित न होना, गुरुकी आज्ञानुसार भोजनादि क्रियायोंमें प्रवृत्ति रखना ॥ पंचम भावना-पीठफळक, संस्तारक, शय्या, वस्त्र, पात्र, कंवल, रजोहरण, चोल, पट्टक (कटिबंधन), मुहपात्त, आसनादि जो उपकरण संयमके निर्वाह अर्थे धारण किया हुआ है उस उपकरणको नित्यम् प्रति प्रतिलेखन करता रहे और प्रमादसे रहित हो कर प्रमार्जन करे, उक्त उपकरणोंको यत्नसे ही रक्खे, यत्नसे ही धारण करे, यत्नपूर्वक सर्व कार्य करे, सो यही पंचमी भावना है। प्रथम महाव्रतको पंचभावनायों करके पवित्र करता रहे क्योंकि इनके ग्रहणसे जीव अनास्त्रवी हो जाता है, और यह भावना सर्व जीवोंको शिक्षाप्रद हैं ।।। द्वितीय महाव्रतकी पंच नावनायें ॥ - प्रथम भावना-सत्य व्रतकी रक्षा वास्ते शीघ्र, वा कटक,
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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