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(११५ ) होते हैं, तथा जो इस पवित्र ब्रह्मचर्य रत्नको प्रीतिपूर्वक आ. सेवन नहीं करते हैं तथा इससे पराङ्मुख रहते हैं, उनकी नित प्रकारसे गति होती है ॥
यथाकम्पः स्वेदः श्रमो मूर्छा, भ्रमिलानियलक्षयः ॥ राजयक्ष्मादि रोगाश्च, भवेयुमैथुनोत्थिताः ॥१॥
अर्थः-कम्प स्वेदै (पसीना ) थकावट मूर्छ भ्र। ग्लानि वलका क्षय राजयक्ष्मादि रोग यह सर्व मैथुनी पुरुषोंको ही उत्पन्न होते हैं, इस लिये सत्य विद्याके ग्रहण करनेके लिये आत्मतत्त्वको प्रगट करनेके वास्ते और समाधिकी इच्छा रखतों हुआ इस ब्रह्मचर्य महाव्रतको धारण करे यही मुनियोंका चतुर्थ महावत है, और सर्व प्रकारके सुख देनेवाला है ।।
सवाज परिग्गदाज वेरमणं ॥ सर्वथा प्रकारसे परिग्रहसे नित्ति करना तीन करणों तीन योगोंसे वही पंचम महावत है, क्योंकि इस परिग्रहके ही प्रतापसे आत्मा सदैवकाल दुःखित शोकाकुल रहता है, और संसारचक्रमें नाना प्रकारकी पीड़ाओंको प्राप्त होता है । पुनः