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( १०७ )
यथा
मातेव सर्वभूतानां अहिंसा हितकारिणी । अहिंसैव हि संसारमरावमृतसारणिः ॥ १ ॥ अहिंसा दुःखदावाग्नि प्रावृषेण्य घनावळी । भवभ्रमिरुगार्त्तानाम हिंसा परमौषधी || २ || दीर्घमायुः परंरूपमारोग्यं श्लाघनीयता । अहिंसा याः फलं सर्व किमन्यत्कामदैवसा || ३ || भाषार्थ:- सज्जनों ! अहिंसा माताके समान सर्व जीवोंसे हित करनेवाली है और अमृत के समान आत्माको तृप्ति देनेवा - की है और जो संसार में दुःखरूपि दावाग्नि प्रचंड हो रही है उसके उपशम करने वास्ते मेघमालाके समान है । फिर जो भवभ्रमणरूपि महान् रोग है उसके लिये यह अहिंसा परमौषधी है तथा मित्रो ! जो दीर्घ आयु, नीरोग शरीर, यशका प्राप्त होना सौम्यभावका रहना अर्थात् जितने संसारी सुख हैं वे सर्व अहिंसा ही द्वारा प्राप्त होते हैं । इस वास्ते सर्वज्ञ सर्वदर्शी के अर्हन् भगवान्ने मुनियोंके लिये प्रथम व्रत अहिंसा ही वर्णन किया है, सो सर्व वृत्तिवाला जीव सर्वथा प्रकारसे हिंसाका परित्याग करे इसका नाम अहिंसा महाव्रत है ||