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________________ ( १०६ ) (१) सवाउ पाणाश्वायाज वेरमणं ॥ सर्वथा प्रकारसे प्राणातिपातसे निर्दृत्ति करना अर्थात् स. र्वथा प्रकारसे जीवहिंसा निर्वर्तना जैसेकि मनसे १ वचनसे २ कायासे ३, करणेसे १ करानसे २ अनुमोदनसे ३ क्योंकि यह अहिंसा व्रत पाणी मात्रका हितैषी है और दया सर्व जीवोंको शान्ति देनेवाली है ॥ फिर दया तप और संयमका मूल है, सत्य और ऋजु भावको उत्पन्न करनेवाली है, दुर्गतिके दुःखोंसे जीवकी रक्षा करनेवाली है अपितु इतना ही नहीं कितु कर्मरूपि रज जो है, उससे भी आत्माको विमुक्ति कर देती है, शत स. हस्रों दुःखोंसे आत्माको यह दया विमोचन करती है, महर्षि. यों करके सेवित है, स्वर्ग और मोक्षके पथकी दया दर्शक है, ऋधि, सिद्धि, शान्ति, मुक्ति इनके दया देनेवाली है। पुनःप्राणियोंको दया आधारभूत है जैसे क्षुधातुरको भोजनका आधार है, पिपासेको जलका, समुद्रमें पोतका, रोगीको ओषधिका, भयभीतको शूरमेका आधार होता है । इसी प्रकार सर्व प्राणि को दयाका आधार है, फिर सर्व प्राणि अभयदानकी प्रार्थना .ते रहते हैं, जो सुख है वे सर्व दयासे ही उपलब्ध होते हैं ।।
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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