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( १३ ) __ यदि फिर भी उस कलशमें मत्संड्यादि द्रव्य प्रविष्ट करें तो
प्रवेश हो जाते हैं उसी प्रकार आकाश द्रव्यमें जीव द्रव्य अजीव
ठहरे हुए हैं। अपितु जैसे भूमिकामें नागदंत (कीला) __ को स्थान प्राप्त हो जाता है तद्वत् ही आकाश प्रदेशों में अनंत
प्रदेशी स्कंध स्थिति करते हैं क्योंकि आकाश द्रव्यका लक्षण ही अवकाश रूप है। __ अथ काल व जीवका लक्षण कहते हैं:
वत्तणा लक्खणो कालो जीवो उवयोग लक्खणो नाणेणं दंसणेणंच सुदेणय दुहेणय ॥ उत्त० अ० २७ गाथा १०॥
वृत्ति-वर्तते अनवच्छिन्नत्वेन निरन्तरं भवति इति वर्त
सा वर्त्तना एव लक्षणं लिङ्गं यस्येति वर्तनालक्षणः काल उच्यते तथा उपयोगो मतिज्ञानादिकः स एव लक्षणं यस्य स
पयोगलक्षणो जीव उच्यते यतो हि ज्ञानादिभिरेव जीवो इक्ष्यते उक्त लक्षणत्वात् पुनर्विशेष लक्षणमाह ज्ञानेन विशेषाव
धेन च पुनदर्शनेन सामान्याववोधरूपेण च पुनः मुखेन च पु. दुखेन च ज्ञायते स जीव उच्यते ॥ १० ॥