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युक्तियां दिखलाता हूंयत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवन्निष्प्रतिपक्षमेतत् ।
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तथाऽपि देहाद् बहिरात्मतत्त्वमतच्चवादोपहताः पठन्ति ॥
भव,
यह बात सबको ही मालूम है कि जहां जो गुण रहता है, वहां ही उस गुण का आधार भी अवश्य रहता है. जैसे जहां घट का रूप की स्थिति है उसी स्थल में घट की भी स्थिति चार आखों से देखने में आती है. उसी तरह आत्मा का गुण ज्ञान, स्मरण, अनुचैतन्य प्रभृति जहां रहते है, जहां देखने में आते है वहा आत्मा की स्थिति भी होनी चाहिये. इस सिद्धान्त का विरोधक और कोई भी सिद्धान्त न होने पर भी हमारे अविद्या से उपहत शास्त्रीजी वावा अपनी सच्ची करने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण से स्थिर बात को भी नहीं मानकर प्रज्ञाचक्षु की गिनती में आना चाहते हैं. पाठक महोदय ! यह बात प्रत्यक्ष प्रमाण से स्थिर की गई है कि आत्मा का ज्ञानादि गुण केवल स्थूल शरीर में ही उपलब्ध होते है. तब भी आत्मा सर्व व्यापक है यह कहना केवल अपने पाण्डित्य को कलfa करने को उद्यत होना है. भला ऐसा कोई कह सकता है कि अभि ( आग ) तो सर्वव्यापक है परन्तु उसका दाह गुण तो सिर्फ