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________________ , आदेश एव किल वेदपदाभिधेयो नोल्लङ्घ्य एष तदधीनहितार्थिजीवैः ॥ ५५॥ ___ इन सब श्लोकका रहस्य यह ही है, कि- इस जगत के रचयिता कोई एक ईश्वर है, यह बात अनुमान प्रमाण से सिद्ध होती है. जैने की प्राणीओंके छोटेसे भी कार्य में कोईन कोई अधिष्ठाता रहता है, तो यह अनेक प्राणीसे बना हुवा जो ब्रह्माण्ड रूप कार्य उसमें अधिष्ठाता सर्वत्र व्यापक एक ईश्वर को मानना चाहिये ॥ ४७ ॥ जितनी प्रवृत्तियां यथारुचि जीवगण करता है, उन सब में एक प्रवृत्ति तो किसीका डर रखके कुटुम्ब और नगर में रहे हुवे जीव में दिखाई देता है, इसलिये जिसकी भीति से उस प्रवृत्तिको लोग कर रहे है, वह ही सर्वस्रष्टा ईश्वर है ॥ ४८ ॥ और उस ईश्वरका ज्ञान निल्य है याने न कभी नष्ट होता है, न कभी पैदा होता है; न कभी किकार को भी पाता है, सदा एक रूपही रहता है. यदि उसको अनित्य माना जाय तो उसका (ज्ञानका) कोइ हेत्वन्तर स्वीकारना पड़ेगा, तो जो हेतु स्वीकृत है वह नित्य, या अनित्य १, यदि नित्य, तों ज्ञानकोही नित्य मानकर व्यर्थ हेतु प्रकल्पन क्यों करना - चाहिये ? और अनित्य मानो तो उसका भी हेतु होना चाहिये. इस प्रकार माननेमें अनवस्था आती है. इसलिये ईश्वरका ज्ञान नित्य ही है और सब कार्य में कारण रूपसे उसीको ही ईश्वर धारण करते है ॥५०॥ यदि
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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