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________________ ( १९२ ) जीव मोक्षमें विराजमान हो जाता है, संसारी बंधनोसे सर्वथा ही छूटकर जन्ममरणसे रहित हो जाता है और सदा ही सुखरूपमें निवास करता है अर्थात् उस आत्माको सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्रके प्रभावसे अक्षय सुखकी प्राप्ति हो जाती है। आशा है भव्य जन उक्त तीनों रत्नोंको ग्रहण करके इस प्रवाहरूप अनादि अनंत संसारचक्रस विमुक्त हाकर माक्षः रूपी लक्ष्मीके साधक बनेंगे और अन्य जीवोंपर परोपकार क. रके सत्य पथमें स्थापन करेंगे जिस करके उनकी आमाको सर्वथा शान्तिकी प्राप्ति होगी और जो त्रिपदी महामंत्र है जै) सेकि उत्पत्ति, नाश, ध्रुव, सो उत्पत्ति नाशसे रहित होकर धुन व्यवस्था जो निज स्वरूप है उसको ही प्राप्त होवेंगे कमोंकि उ. पत्ति नाश यह विभाविक पर्याय हैं किन्तु त्रिकालमें सवरूप रहना अर्थात् निज मुणमें रहना यह स्वाभाविक अर्थात् निजगुण है। सो कर्ममलसे रहित होकर शुद्धरूप निज गुणमें सर्वज्ञतामें वा सर्वदर्शितामें जीव उक्त तीनों रत्नों करके विगजमान हो जाते हैं। मैं आकांक्षा करता हूं कि भव्य जीव श्री अर्हन्देवके प्रतिपादन किये हुए तत्त्वोंद्वारा अपना कल्याण अवश्य ही करेंगे। ३ इति श्री अनेकान्त सिद्धान्त दपर्णस्य चतुर्थ सगे समाप्त ।
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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