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________________ (१३१ ) अपमानको भी शान्तिसे ही आसेवन करे १९ ।। बुद्धि महान् होनेपर अहंकार न करे, यदि स्वल्प बुद्धि होवे तो शोक न करे २० ॥ फिर ऐसे भी न विचारे की मेरेको ज्ञान तो हुआ ही नही इस लिये जो कहते हैं मुनियोंको लब्धियें उत्पन्न हो जाती है वे सर्व कथन मिथ्या है, क्योंकि जेकर ज्ञान वा कब्धियें होती तो मुजे भी अवश्य ही होती २१ ॥ और पट् द्रव्य वा तीर्थंकरोंके होनेमें भी संदेह न करे अर्थात् सम्यक्त्वसे स्खलित न हो जावे २२ ।। इस प्रकारसे द्वाविंशति परीपहोंको सम्यक् प्रकारसे सहन करता हुआ धर्मध्यान वा शुक्लध्यानमें प्रवेश करता हुआ मुनि अष्ट कर्मोंकी वर्गनासे ही मुक्त हो जाता है; अष्ट काँसे ही संसारी जीव संसारके बंधनोंमें पड़े हुए हैं इनके ही त्यागनेसे जीवकी मुक्ति हो जाती है ॥ यथा-ज्ञानावर्णी १ दर्शनावर्णी २ वेदनी ३ मोहनी ४ आयु ५ नाम ६ गोत्र ७ अंतराप कर्म ८ ॥ इन कर्मोंकी अनेक प्रकृतियें है जिनके द्वारा जीव मुखों वा दुखोंका अनुभव करते हैं, जैसेकि-ज्ञानावर्णी कर्म ज्ञानको आवर्ण करता है अर्थात् ज्ञानको न आने देता सदैव काल माणियोंको अज्ञान दशामें ही रखता है, पाच प्रकारके दी शानोंको आवर्ण करता है और यह कर्म जीवोंको धर्म अधर्म की परीक्षासे भी पृथक् ही रखता है अर्थात् इस कर्मको बलसे
SR No.010234
Book TitleJain Gazal Gulchaman Bahar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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