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द्वितीय अध्याय
सम्पद्यमसुलभं चरणकरणसाधकं श्रुतज्ञानम् । लब्ध्वा सर्वमदहरं तेनैव मदः कथं कार्यः ॥ ५०॥
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- माष तुष मुनिके उपाख्यानको श्रुतज्ञानके भेदोंकी प्ररूपणाको और स्थूलभद्रमुनिकी विस्मयकारिणी विक्रियाको सुनकर कौन बुद्धिमान् श्रुतका मद करेगा ? आगम-ज्ञानियों के सम्पर्कसे और अपने पुरुषार्थसे. सुलभ अर्थात् अनायास प्राप्त होनेवाले, चरण (मूल गुण ) और करण ( उत्तर गुण ) के साधक, तथा सर्व मदोंके हरनेवाले ऐसे श्रुतज्ञानको पाकर उसका मद कैसे किया जा सकता है ॥४९-५०॥
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भावार्थ- सद्भावसे ग्रहण किये गये अल्प भी श्रुतज्ञानसे मनुष्य निर्वाणको प्राप्त हो सकता है । 'माषतुष' मुनिं मन्दबुद्धि होनेके कारण शास्त्राभ्यास करने में असमर्थ रहे । उनपर अनुग्रह करके गुरुने उन्हें दो पद सिखा दिये--' मा रूस' 'और 'मा' तूस' अर्थात् किसीसे राग मत करो और द्वेष मत करो । याद करते करते ये दोनों पद भूल गये और 'मास तुस' याद रह गया । उसका उच्चारण करते हुए इतने मात्र अल्प ज्ञानसे ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया । अतएव मैं अनेक शास्त्रोंका ज्ञाता हूँ, ऐसा मान नहीं करना चाहिए | श्रुतज्ञानके अनेक भेद हैं, कोई विशिष्ट क्षयोपशम से अधिक जानता है और कोई मन्द क्षयोपशमसे अल्प जानता है । सबकी बुद्धि समान नहीं होती, इसलिए भी श्रुतका मद नहीं करना चाहिए | स्थूलभद्र मुनिको विद्यानुवादपूर्वके अभ्यास से विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हुई और गर्वमें आकर उन्होंने सिंहका रूप बनाकर दर्शनार्थ आई हुई साध्वियों को
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भयभीत कर