________________
. प्रथम अध्याय
३३ . :: . परमात्माका स्वरूप .
. ' निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरक्षयः। ... ... - परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥२५॥: ....
- जो निर्मल है ( कर्ममलसे रहित है ) केवल हैं ( शरीरादिके सम्बन्धसे विमुक्त है ) शुद्ध है (द्रव्य-भाव कर्मरूप अशुद्धिसे विवर्जित है ) विविक्त है ( शरीररूप नोकर्मसे वियुक्त है ) अक्षय है (अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यरूप अनन्तचतुष्टयको धारण करनेसें क्षय-रहित है), परमेष्ठी है (इन्द्रादि-पूजित परम पदमें विद्यमान है), परमात्मा है ( सर्व संसारी जीवोंसे उत्कृष्ट है), ईश्वर है - ( अन्य जीवोंमें नहीं पाये जानेवाले ऐसे अनन्त ज्ञानादिरूप ऐश्वर्यसे युक्त है) और जिन है ( सर्व कमौका उन्मूलन करनेवाला विजेता है ) उसे परमात्मा कहते हैं ॥२५॥
- परमात्माके भेद और उनका स्वरूप .. परमात्मा द्विधा सूत्रे सकलो नि : स्मृतः ।
हो भण्यते सद्भिः केवली जिनसत्तमः ॥२६॥
निष्कलो मुक्तिकान्तेशश्चिदानन्दकलक्षणः । .... अनन्तसुखसन्तृप्तः कर्माष्टकविवर्जितः ॥२७॥
जिनागममें परमात्माके दो भेद कहे गये हैं-एक सकल परमात्मा और दूसरा निप्कल परमात्मा । शरीर-सहित, नवकेवल-लब्धिसे सम्पन्न, चार घातिया काँसे रहित सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जिनेन्द्रको सकल परमात्मा कहते हैं। जो शरीरसे तथा आठों काँसे. विमुक्त होकर मुक्ति-लक्ष्मीके स्वामी बन गये हैं, सच्चिदा-. . . .