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जैनधर्मामृत कार गुणी ज्ञानी साधु-जनोंके शम, दम, धैर्य, गम्भीर्य और विशिष्ट ज्ञानित्व आदि गुणोंमें पक्षपात करना, अर्थात् विनय, वन्दना, स्तुति आदिके द्वारा आन्तरिक हर्ष व्यक्त करना प्रमोद-भावना है ॥२२॥
कारुण्य-भावना दीनेष्वापु भीतेपु याचमानेषु जीवितम् ।
प्रतीकारपरा बुद्धिः कारुण्यमभिधीयते ॥२३॥ हेय-उपादेयके ज्ञान-रहित दीन पुरुषोंपर, नाना प्रकारके सांसारिक दुःखोंसे पीड़ित आर्त प्राणियोंपर, केवल अपने जीवनकी याचना करनेवाले जीव-जन्तुओंपर, अपराधी लोगोंपर, अनाथ, बाल, वृद्ध, सेवक आदिपर, तथा शत्रुओंसे पीड़ित प्राणियोंपर प्रतीकारात्मक बुद्धि को-उनके उद्धारकी भावना करनेको-कारुण्य-भावना कहते हैं ॥२२॥
माध्यस्थ्य-भावना क्रूर-कर्मसु निःशकं देवता-गुरुनिन्दिषु ।
आत्मशंसिपु योपेक्षा तन्माध्यस्थ्यमुदीरितम् ॥२॥ निःशंक होकर कर कर्म करनेवालों पर, देव, धर्म और गुरुकी निन्दा करनेवालों पर, तथा अपने आपकी प्रशंसा करनेवालों पर उपेक्षा भावके रखनेको माध्यस्थ्य भावना कहते हैं ॥२४॥
अन्तरात्मा इन चारों प्रकारकी भावनाओंको निरन्तर किया करता है और इस प्रकार विश्वके सर्व प्राणियोंके साथ मैत्री भावका सम्बन्ध स्थापित करता है।