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________________ प्र अध्याय .. भावार्थ- प्रत्येक प्राणीमें जो जानने-देखनेकी शक्तिसे सम्पन्न जीवन-तत्त्व पाया जाता है, उसे ही आत्मा कहते हैं। उसके तीन . भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । आगे क्रमशः इन तीनोंका स्वरूप कहा जायगा। ...: बहिरात्माका स्वरूप . आत्मबुद्धिः शरीरादौ यस्य स्यादात्मवि त्।ि बहिराल्मा स विज्ञेयो मोहनिद्रास्तचेतनः ॥४॥ . . जिस जीवके शरीरादि पर-पदार्थोंमें आत्म-बुद्धि है, अर्थात् : जो आत्माके भ्रमसे शरीर-इन्द्रिय आदिको ही आत्मा मानता है .. और जिसकी चेतना-शक्ति मोहरूपी निद्रासे अस्त हो गई है, उसे बहिरात्मा जानना चाहिए ॥४॥ ..." भावार्थ-बाहरी पदार्थोंमें जिसने आत्मत्वकी-अपनेपनकीकल्पना कर रक्खी है, उसे बहिरात्मा कहते हैं। बहिरात्मा इस पार्थिव शरीरको ही अपनी आत्मा मानता है, इसलिए शरीरके उत्पन्न होने पर वह अपना जन्म और शरीरके विनाश होने पर . अपना मरण मानता है। शरीरके गोरे-काले होनेसे वह अपनेको गोरा या काला समझता है, शरीरके स्थूल या कृश होनेसे अपनेको : स्थूल या कृश मानता है, शरीरके दुर्वल होनेसे अपनेको दुर्बल एवं शरीरके सबल होनेसे अपनेको सबल मानता है। शरीरके सुरूप होनेसे अपनेको सुरूप और शरीरके कुरूप होनेसे अपनेको कुरूप मानता है। इसी प्रकार शरीरके सुखी होनेसे अपनेको सुखी और शरीरके दुखी होनेसे वह अपने आपको दुखी मानता है।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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