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जैनधर्मामृत ____धर्मका इतना स्वरूप जान लेनेके पश्चात् स्वभावतः यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि वह धर्म क्या वस्तु है ? इसका उत्तर श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने बड़े ही सुन्दर शब्दोंमें दिया है कि मोह और क्षोभसे रहित आत्माके समभाव या प्रशान्त परिणामको धर्म कहते हैं। यहाँ मोहसे अभिप्राय रागका है और क्षोभसे द्वेषका अभिप्राय है। प्रत्येक प्राणीके अनादि संस्कारके वशसे राग-द्वेषकी प्रवृत्ति चली आ रही है। जहाँ यह एकसे राग करता है, वहीं वह दूसरेसे द्वेष भी करने लगता है। इसीलिए महर्षियोंने रागद्वेषको मोह-सम्राटके दो प्रधान सेनापति या संसार-रूप भवनके आधार-भूत प्रधान स्तम्भ कहा है। जो जीव राग-द्वेषसे छूटना चाहते हैं और धर्मको धारण करना चाहते हैं उन्हें सबसे पहले आत्म-स्वरूपका जानना आवश्यक है; क्योंकि आत्म-स्वरूपके जाने विना दुःखोंसे या राग-द्वेषसे मुक्ति मिलना संभव नहीं है। __ यही वात आचार्य आगेके पद्य-द्वारा प्रकट करते हैं :
अतः प्रागेव निश्चयः सग्यगात्मा क्षुभिः ।
अशेपपरपर्यायकल्पनाजालवर्जितः ॥२॥ .. जो सांसारिक दुःखोंके प्रधान कारणभूत राग-द्वेषसे मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें सबसे पहले समस्त पर-पर्यायरूप कल्पना-जालसे रहित अपनी आत्माका निश्चय करना चाहिए ॥२॥
त्रिप्रकारं स भूतेषु सर्वेष्वात्मा व्यवस्थितः ।
वहिरन्तः परश्चेति विकल्पैर्वच्यमाणकैः ॥३॥ वह आत्मा सर्व प्राणियोंमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा रूप तीन प्रकारसे अवस्थित है। इन तीनोंके भेद आगे कहे जावेंगे।॥३॥