________________ 0 दशम अध्याय : संक्षिप्त सार . पिछले अध्यायमें कोंके आनेके कारणोंका वर्णन किया गया है। उन कारणोंसे कर्म-परमाणु चारों ओरसे खिंच कर आत्माके भीतर प्रवेश करते हैं। उनका आत्म-प्रदेशोंके साथ एकमेक होकर मेलमिलाप हो जाता है उसे ही बन्ध कहते हैं। काँका यह बन्ध चार प्रकारका होता है-प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवन्ध | आनेवाले कर्म-परमाणुओंमें जो ज्ञान, दर्शन सुखादिके घातने रूप अनेक प्रकारका स्वभाव पड़ता है, उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं / वे कर्म-परमाणु जितने समय तक आत्माके साथ सम्बद्ध रहेंगे, उस कालकी सीमाको स्थितिबन्ध कहते हैं। उनमें तीन या मन्द रूपसे फल देनेकी जो हीनाधिक शक्ति पड़ती है, उसे अनुभाग वन्ध कहते हैं / तथा आनेवाले कर्म-परमाणुओंका आठों कर्मोंमें जो विभाजन होता है, उसे प्रदेशबन्ध कहते हैं। प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्धका कारण योग अर्थात् मन, वचन, कायकी चंचलता है, तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका कारण कषाय है। योग और कषायकी तीव्रता और मन्दताके अनुसार ही उक्त बन्धोंमें हीनाधिकता होती है / कर्मके इन्हीं चारों प्रकारके बन्धोंका इस अध्यायमें विवेचन किया गया है। अन्तमें आठों कर्मोंकी 148 प्रकृतियोंका पुण्य और पाप रूपसे विभाग बतलाया गया है।