________________ .. पष्ठ अध्याय 173 ... .. जिस जोवको मिथ्यात्व कर्मके उदय आने पर जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा देखे गये सच्चे तत्त्व नहीं रुचते हैं, वह प्रथम गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव माना गया है // 3 // __ भावार्थ-जिस कर्मके उदय होनेपर आत्माका सम्यग्दर्शनगुण प्रकट नहीं होने पाता, उसे मिथ्यात्वकर्म कहते हैं / प्रथम गुणस्थान में इसका नियमसे उदय पाया जाता है, इसलिए इस गुणस्थान वाले समस्त जीव मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। मिथ्यादृष्टि जीवोंको अपने हेयउपादेयका कुछ भी ज्ञान नहीं होता है। वे सदा विषयों में मस्त, अज्ञानमें रत और विपरीत दृष्टि वाले होते हैं। प्रथम अध्यायमें जो वहिरात्मा बतलाये गये हैं, वे सब मिथ्यादृष्टि और प्रथम गुणस्थानवर्ती ही जानना चाहिए / : ....... ... . :2 सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान संयोजनोदये भ्रष्टो जीवः प्रथमदृष्टितः। : अन्तरानात्तमिथ्यात्वो वय॑ते श्रस्तदर्शनः // 4 // . . . . .. ''अनन्तानुबन्धी कषायके उदय होने पर प्रथमोपशम सम्यगदर्शनसे भ्रष्ट हुआ, और जिसने अभी मिथ्यात्वको नहीं प्राप्त किया है, ऐसा जीव सासादन-सम्यग्दृष्टि कहलाता हैः // 4 // : भावार्थ-मिथ्यादृष्टि जीव जब मिथ्यात्वको छोड़कर सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है और अविरत सम्यग्दृष्टि बनता है तब वह प्रथम गुणस्थानसे एकदम ऊँचा उठकर चतुर्थ गुणस्थानवर्ती बन जाता है। जब चौथे गुणस्थानका काल समाप्त होनेमें सिर्फ छह आवलीप्रमाण काल शेष रह जाता है और यदि उसी समय अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान; माया, लोभमेंसे किसी एक कषायका .