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• पञ्चम अध्याय : संक्षिप्त सार .
इस अध्यायमें चारित्रके दूसरे भेद सकल चारित्रका वर्णन किया गया है। सर्व पापोंके सर्वथा त्यागको सकल चारित्र कहते हैं । इस सकल चारित्रको धारण करनेके लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य घर-बार और सर्व आरम्भ-परिग्रह छोड़कर साधु बन जावे । इसका कारण यह है कि गृहस्थीमें रहते हुए निष्पाप जीवनका विताना संभव नहीं है। गृहवासमें आरम्भ आदिके द्वारा कुछ न कुछ हिंसा होती है। अतएव जिनका हृदय प्राणि-पीड़ाके पापसे भयभीत और जीव-रक्षाके लिए करुणासे आर्द्र हो जाता है, वे पूर्ण निष्पाप जीवन बितानेके लिए सभी प्रकारके परिग्रहका परित्याग कर और यथाजात रूपको अंगीकार कर एक मात्र जीवोंकी रक्षा करते हुए आत्म साधनामें तल्लीन रहते हैं और शरीर-निर्वाहके लिए भोजन-वेलामें गृहस्थके घर जाकर उसके द्वारा दी गई निर्दोष भिक्षा को स्वीकार करते हैं । इस संकल चारित्रके धारक साधुको २८ मूल गुणोंका पालना आवश्यक होता है, उन्हींका इस अध्यायमें विवेचन किया गया है और अन्तमें बतलाया गया है कि सकल चारित्रके
धारक साधुओंको ही किन भिन्न भिन्न विशिष्ट गुणोंके कारणं ऋषि, • यति, मुनि, अनगार, वाचंयम, अनाश्वान् , योगी, परमहंस, अतिथि
आदि विभिन्न नामोंसे पुकारा जाता है।