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चतुर्थ अध्याय मांस-भक्षणके दोष .
. न विना प्राण-विघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । .. मांसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ॥३८॥
यतः प्राणोंके घात किये बिना मांसकी उत्पत्ति नहीं होती है, अतः मांस-भक्षी पुरुषके अनिवार्य, हिंसा होती है ॥३८॥
भावार्थ-मांसका भक्षण करनेवाला पुरुष भले ही अपने हाथ से किसी जीवको न मारे, तथापि वह हिंसा पापका भागी होता
यद्याप ।
यद्यपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिप-वृषभादेः। ... . तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रित-निगोत-निर्मथनात् ॥३६॥
: स्वयमेव ही मरे हुए गाय-भैंस आदि पशुओंका जो मांस होता है उस मांसके भक्षणमें भी मांसाश्रित तज्जातीय निगोदिया जीवोंके निमर्थनसे हिंसा होती ही है ॥३९॥ ...
__ आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीपु । .. सातत्येनोत्पादस्तजातीनां निगोतानाम् ॥४०॥
विना पकी, पकी हुई ओर पकती हुई भी मांसकी डलियोंमें उसी जातिके सम्मूर्च्छन जीवोंका निरन्तर ही उत्पाद होता रहता है ॥४०॥ - भावार्थ-मांसमें सदा ही जीवोंकी उत्पत्ति होती रहती है। - आमां वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशित-पेशीम् । - स हिनस्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीव कोटीनाम् ॥४१॥
जो जीव कच्ची अथवा पकी हुई मांसकी डलीको खाता है, अथवा छूता है, वह पुरुष निरन्तर एकत्रित हुए अनेक जीव कोटियों के पिण्डको मारता है ॥४१॥ .