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जैनधर्मामृत
समुदाय भी नहीं दे सकता। क्योंकि तप, श्रुत, शील-संयमादि सभी धर्मके अंगोंका आधार एकमात्र अहिंसा ही है ॥३३॥
मद्यं मांसं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन ।
हिंसाव्युपरतिकामोक्तव्यानि प्रथममेव ॥३४॥ हिंसाके परित्याग करनेके इच्छुक जनोंको प्रथम ही यलपूर्वक मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलोंका त्याग करना चाहिए ।
मद्य-पानके दोष मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् ।
विस्मृतधर्मा जीवो हिंसामविशङ्कमाचरति ॥३५॥ मदिरा-पान चित्तको मोहित करता है, और मोहित-चित्त पुरुष धर्मको भूल जाता है तथा धर्मको भूला हुआ जीव हिंसाका निःशंक होकर आचरण करता है ॥३५॥
रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् ।
मद्यं भजतां तेपां हिंसा संजायतेऽवश्यम् ॥३६॥ मदिरा, रसोत्पन्न अनेक जीवोंकी योनि कही जाती है, इसलिए मद्य-सेवन करनेवाले जीवोंके हिंसा अवश्य ही होती है ॥३६॥
भावार्थ-मदिरामें तद्रस-जातीय असंख्य जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं, और पीते समय उन सबकी मृत्यु हो जाती है, इसलिए मदिरा-पानमें हिंसा नियमसे होती ही है।
अभिमान-भय-जुगुप्सा-हास्यारति-शोक-काम-कोपाद्याः । हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च शरक-सन्निहिताः ॥३७॥ अभिमान, भय, जुगुप्सा, हास्य, अरति, शोक, काम, क्रोधआदिक हिंसाके ही पर्यायवाची नाम हैं और वे सब ही, मदिरापानके निकटवर्ती हैं ॥३७॥