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चतुर्थ अध्याय
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हिंसा करने से पहले ही उस हिंसाका फल भोग लिया जाता है । इसी प्रकार किसीने हिंसा करनेका विचार किया और इस विचार द्वारा बाँधे हुए कर्मोंके फलको उदयमें आनेकी अवधि तक वह उक्त हिंसा करनेको समर्थ हो सका, तो ऐसी दशा में हिंसा करते समय ही उसका फल भोगना सिद्ध होता है । किसीने सामान्यतः हिंसा करके पश्चात् उसका उदयकालमें फल पाया, अर्थात् हिंसा कर चुकने पर फल पाया । किसीने हिंसा करनेका आरंभ किया. था, परन्तु किसी कारण हिंसा न कर सका, तथापि आरम्भजनित बन्धका फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ेगा, अर्थात् हिंसा न करने पर भी हिंसाका फल भोगा जाता है । कहनेका सारांश यह है कि कषाय रूप भावोंके अनुसार ही हिंसाका फल मिलता है ।
एकः करोति हिंसां भवन्ति फलभागिनो बहवः । बहवो विदधति हिंसां हिंसाफलभुग्भवत्येकः ||१६||
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एक पुरुष हिंसाको करता है, परन्तु फल भोगनेके भागी बहुत होते हैं । इसी प्रकार किसी हिंसाको अनेक जन करते हैं, परन्तु हिंसाके फलका भोक्ता एक ही पुरुष होता है ॥ १६ ॥
भावार्थ-किसी जीवको मारते हुए देखकर जो दर्शक लोग प्रसन्नताका अनुभव करते हैं, वे सभी उस हिंसाके फलके भागी होते हैं । इसी प्रकार संग्राम आदिमें हिंसा करनेवाले तो अनेक होते हैं, किन्तु उनको आदेश देनेवाला अकेला राजा ही उस हिंसा के फलका भागी होता है ।
कस्यापिदिशति हिंसा हिंसाफलमेकमेव फलकाले । अन्यस्य सवं हिंसा दिशत्यहिंसा फलं विपुलम् ||२०||