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जैनधर्मामृत
अल्प भी हिंसा फल-कालमें अधिक ही फल देगी। किन्तु जो पुरुष परिणामोंमें हिंसाके अधिक भाव न रखकर अचानक द्रव्य हिंसा कर गया है वह फल-कालमें अल्प फलका ही भागी होगा ।
एकस्य सैव तीन दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य ।
वजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचित्र्यमत्र फलकाले ॥१७॥ __ एक साथ दो व्यक्तियोंके द्वरा मिलकर की गई भी हिंसा उदयकालमें विचित्रताको प्राप्त होती है । अर्थात् वही हिंसा एक को तीव्र फल देती है और दूसरेको मन्द फल देती है ॥१७||
भावार्थ-यदि दो पुरुष मिलकर कोई हिंसा करें तो उनमेंसे जिसके परिणाम तोत्र कषाय रूप हुए हैं उसे हिंसाका फल अधिक भोगना पड़ेगा और जिसके मन्द कषाय रूप परिणाम रहे हैं उसे अल्प फल भोगना पड़ेगा।
प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति फलति च कृतापि ।
आरभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ॥१८॥ कोई हिंसा करनेके पहले ही फल देती है और कोई हिंसा करते हुए ही फल देती है, कोई हिंसा कर चुकने पर फल देती है और कोई हिंसा करनेका आरम्भ करके न करने पर भी फल देती है, इस प्रकार हिंसा कषायभावोंके अनुसार फल देती है ॥१८॥ ___ भावार्थ-किसी जीवने हिंसा करनेका विचार किया, परन्तु अवसर न मिलनेके कारण वह हिंसा न कर सका, किन्तु उन कषाय-परिणामोंके द्वारा बँधे हुए कर्मोंका फल उदयमें आ गया, पश्चात् इच्छित हिंसा करनेको समर्थ हुआ तो ऐसी अवस्थामें