________________
१०६
चतुर्थ अध्याय उन रागादिभावोंकी उत्पत्ति होना ही हिंसा है बस इतना मात्र ही जैन सिद्धान्तका संक्षिप्त सार या रहस्य है ॥८॥
युक्ताचरणस्य सतो, रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा, प्राणव्यपरोपणादेव ॥६॥
योग्य आचरण करनेवाले सन्त पुरुषोंके रागादि आवेशके विना केवल प्राणोंके घातसे हिंसा कदाचित् भी नहीं होती है ॥६॥
भावार्थ-यदि किसी अन्य पुरुषके सावधान होकर गमनादि करनेमें उसके शरीर-सम्बन्धसे कोई जीव पीड़ित हो जाय, या मर जाय, तो उसे हिंसाका दोष कदापि नहीं लगता। क्योंकि उसके परिणाम राग-द्वेष आदि कषाय रूप नहीं हैं।
व्युत्थानावस्थायां रागीदीनां वशप्रवृत्तायाम् । म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥१०॥
रागादि भावोंके वशमें प्रवृत्त होनेपर अयत्नाचाररूप प्रमादअवस्थामें जीव मरे, अथवा नहीं मरे, किन्तु हिंसा तो निश्चयतः आगे ही दौड़ती है ॥१०॥
भावार्थ-जो प्रमादी जीव कपायोंके वश होकर असावधानी पूर्वक गमनादि क्रिया करता है उस समय चाहे जीव मरे अथवा न मरे, परन्तु वह हिंसाके दोपका भागी तो अवश्य ही होता है क्योंकि हिंसा कपायरूप भावोंसे उत्पन्न होती है।
यस्मात्सकपायः सन् हन्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् ।
पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणान्तु ॥१३॥ उक्त कथनका कारण यह है कि आत्मा कपाय भावोंसे युक्त होकर पहले अपने आपके द्वारा अपना ही घात करता है,